प्रमुख ऐतिहासिक संधियाँ : ऐतिहासिक भारत की बात करें तो यहाँ बहुत सारी रियासतें रही हैं। बहुत सारे राजा-महाराजों ने यहाँ राज किया है। जिनके मध्य अक्सर युद्ध होते रहते थे जिनका अंग्रेज़ों ने भरपूर फायदा उठाया। ब्रिटिशों की गुलामी से पहले राजपूतों, मराठों और मुसलामानों के बीच कई महत्वपूर्ण संधियाँ भी हुई। इनमे से अधिकतर संधियों का उद्देश्य दिल्ली सल्तनत पर शासन करना था। अंग्रेज़ों ने इन सब चीज़ों को ध्यान में रखकर “फूट डालो राज करो” की नीति अपनायी और देश पर अपना कब्ज़ा कर लिया था और सबसे लंबे समय तक भारत पर राज किया। आज के इस लेख में हम भारत के इतिहास की प्रमुख संधियों के बारे में आपको जानकारी देने वाले हैं।
प्रमुख ऐतिहासिक संधियाँ
भारत में राज करने वाली राजपूत, मराठा और मुस्लिम रियासतों के मध्य बहुत सारी महत्वपूर्ण संधियां हुई थी जो आज के समय में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछी जाती हैं। अगर आप भी किसी कॉम्पिटेटिव एग्जाम की तैयारी कर रहे हैं तो यह लेख आपके लिए बहुत उपयोगी साबित हो सकता है। आप यहाँ से प्रमुख ऐतिहासिक संधियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। प्रमुख ऐतिहासिक संधियाँ कुछ इस प्रकार हैं :
अलीनगर की संधि
9 फ़रवरी 1757 ई. को अलीनगर की संधि बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई थी, जिसका प्रतिनिधित्व क्लाइव और वॉटसन ने किया था। यह संधि अंग्रेज़ों के द्वारा कलकत्ता के पुनः जीतने के बाद की गई थी।
इलाहाबाद की संधि
सन 1765 ई. ईस्ट इंडिया कंपनी में, रॉबर्ट क्लाइव और सम्राट शाह आलम द्वितीय के बीच इलाहाबाद की संधि की गयी थी। इस संधि के माध्यम से, ईस्ट इंडिया कंपनी ने इलाहाबाद के कोडा और जिवल्ले शाह आलम द्वितीय को लौटना स्वीकार किया है। उसी समय, कंपनी ने सम्राट को 26 लाख रुपये का वार्षिक बकाया स्वीकार किया। इस संधि के बदले में बादशाह ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा से राजस्व वसूलने का अधिकार सौंप दिया।
मसुलीपट्टम की संधि
23 फरवरी, 1768 को मसुलीपट्टम की संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। इस संधि के तहत, भारत का हैदराबाद राज्य अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया था। पहले मैसूर के शासक हैदर अली की विस्तारवादी नीतियों को रोकने के लिए 1767 में प्रथम मैसूर युद्ध शुरू हुआ था। शुरुआत में हैदराबाद का निज़ाम अंग्रेजों के साथ था, लेकिन जल्द ही वह अंग्रेजों से अलग हो गया था। बाद में जब अंग्रेजों ने निजाम को बालाघाट का शासक माना, तो वे फिर से मसुलीपट्टम (मछलीपट्टनम) में शामिल हो गए। 1769 में युद्ध के अंत में, अंग्रेजों ने हैदराबाद पर मैसूर की संप्रभुता को मान्यता दी। यह इस बात का एक बड़ा उदाहरण था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में किस प्रकार छल-कपट और कूटनीति का खेल अपना रहा था। इस धोखे के कारण निज़ाम 1779 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हैदर अली का साथ देने पर मजबूर हुआ। लॉर्ड कार्नवालिस ने कंपनी द्वारा 1788–1789 में दिए गए शब्दों से हट जाने की कोशिश की। जिसके परिणामस्वरूप तीसरा मैसूर युद्ध (1790-1792 ई) से शुरू हो गया। बाद में यह युद्ध से अंग्रेजों द्वारा मैसूर और हैदराबाद पर नियंत्रण मजबूत होने के बाद ही समाप्त हुआ।
बनारस की संधि प्रथम
1773 ई. में अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच बनारस की संधि प्रथम पर हस्ताक्षर किए गए थे। इस संधि के अनुसार, काडा और इलाहाबाद जिले अवध के नवाब के अधीन किए गए थे। पहले यह जिला मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को दिया गया था। अवध के नवाब शुजा-उद-दौला ने इन जिलों के बदले में कंपनी को एकमुश्त पचास लाख रुपये और वार्षिक वित्तीय सहायता देने पर सहमति व्यक्त की। नवाब की शर्त के अनुसार, नवाब की सुरक्षा के लिए कंपनी अवध में अपने एक सैनिक को तैनात करने के लिए तैयार हो गई।
बनारस की सन्धि द्वितीय
सन 1775 ई. राजा चेत सिंह और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच बनारस की दूसरी संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। इस संधि के द्वारा, चेत सिंह, जो मूल रूप से अवध के नवाब के सामंत थे, ने ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। उन्होंने यह प्रभुत्व इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि कंपनी को बाईस लाख रुपये का वार्षिक वेतन दिया जाएगा। संधि में यह भी उल्लेख किया गया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी उसके साथ कोई अन्य विकल्प नहीं बनाएगी। एक शर्त यह भी थी कि, कंपनी का कोई भी व्यक्ति राजा के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करेगा और न ही वह देश की शांति को अस्वीकार करेगा। इस निश्चित आश्वासन के बावजूद, वॉरेन हेस्टिंग्स ने वर्ष 1778 – 1780 में अतिरिक्त धनराशि को प्राथमिकता दी। इस घटना को भारतीय इतिहास में ‘चेत सिंह के मामले’ के रूप में जाना जाना चाहिए।
सूरत की सन्धि
सूरत की संधि 1775 ई. रगोवा (रघुनाथराव) और अंग्रेजों के बीच हुई थी। इस संधि के अनुसार, अंग्रेजों ने रैगोवा को सैन्य सहायता स्वीकार की। युद्ध में जीत के बाद, अंग्रेजों ने उन्हें पेशवा बनाने का भी वादा किया। संधि के अनुसार, रागोवा ने अंग्रेजों को शाश्वती और बसई और भारोच और सूरत जिलों की आय का एक हिस्सा स्वीकार किया। उन्होंने अंग्रेजों को एक वचन भी दिया कि वह किसी भी तरह से अपने दुश्मनों को नहीं समेटेंगे।
पुरन्दर की संधि
पुरंदर की संधि 1776 ई. मराठों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ। ‘बम्बई सरकार’ और अपने को पेशवा मानने वाले राघोवा के बीच 1775 ई. की सूरत की संधि के फलस्वरूप कम्पनी और मराठों के बीच युद्ध छिड़ गया था। इस युद्ध को रोकने के लिए, कंपनी ने मराठा के साथ संधि वार्ता के लिए अपने प्रतिनिधि कर्नल अप्टन को भेजा। पुरंदर की संधि के माध्यम से, अंग्रेज राघोबा को इस शर्त पर छोड़ने के लिए सहमत हुए कि उन्हें अपने कब्जे में सस्थी रखना होगा। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने संधि को खारिज कर दिया और परिणामस्वरूप मराठों से लड़ाई नहीं की। यह युद्ध 1782 ई. यह वरसबाई की संधि द्वारा चला गया और समाप्त हो गया। अंग्रेज़ों ने सलाबी पर पुरंदर की संधि का समझौता किया और इसे मराठों से छाँट लिया।
बड़गाँव की संधि
बड़गाँव समझौता जनवरी, 1779 ई. में किया गया था। यह समझौता प्रथम मराठा युद्ध (1776-82 ई.) के दौरान भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार की ओर से कर्नल करनाक और मराठों के मध्य हुआ। कर्नल काकबर्न के नेतृत्व में अंग्रेज़ों की एक सेना ने कमिश्नर कर्नल करनाक के साथ पूना की ओर कूच किया। कूच करने के बाद रास्ते में अंग्रेज़ी सेना को पश्चिमी घाट स्थित तेलगाँव नामक स्थान पर मराठों की विशाल सेना का मुक़ाबला करना पड़ा। अंग्रेज़ी सेना की कई स्थानों पर हार हुई और उसे मराठों ने चारों तरफ़ से घेर लिया। ऐसी स्थिति में कर्नल करनाक हिम्मत हार गया और उसके ज़ोर देने पर ही कमांडिंग अफ़सर कर्नल काकबर्न ने ‘बड़गाँव समझौते’ पर हस्ताक्षर कर दिये।
सालबाई की संधि
17 मई 1782 को मराठा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधियों द्वारा प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त करने के लिए लंबी बातचीत के बाद सालबाई की संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे । इसकी शर्तों के तहत, कंपनी ने साल्सेट और भरूच पर नियंत्रण बनाए रखा और गारंटी ली कि मराठा मैसूर के हैदर अली को हरा देंगे और कर्नाटिक क्षेत्र को वापिस हासिल करेंगे। मराठों ने यह भी गारंटी दी कि फ्रांसीसी अपने क्षेत्रों पर बस्तियां स्थापित करने से प्रतिबंधित होंगे। बदले में, अंग्रेज़ों ने अपने शागिर्द, रघुनाथ राव को पेंशन देने पर सहमति जताई और माधवराव द्वितीय को मराठा साम्राज्य के पेशवा के रूप में स्वीकार किया। अंग्रेजों ने जुमना नदी के पश्चिम में महादजी सिंधिया के क्षेत्रीय दावों को भी मान्यता दी और पुरंदर की संधि के बाद अंग्रेजों द्वारा कब्जा किए गए सभी क्षेत्रों को मराठों को वापस दे दिया गया। सालबाई की संधि के परिणामस्वरूप 1802 में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध छिड़ने तक मराठा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच (20 वर्ष) सापेक्ष शांति का दौर चला। डेविड एंडरसन ने ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से सालबाई की संधि का समापन किया।
बसई की संधि
मराठा प्रदेश के राजाओं के आपस में जो संघर्ष चल रहे थे उनमें पूना के निकट हदप्सर स्थान पर बाजीराव द्वितीय को यशवंतराव होल्कर ने पराजित किया। पेशवा बाजीराव भाग कर बसई पहुँचे और ब्रिटिश सत्ता से शरण माँगी। पेशवा का शरण देना ब्रिटिश सत्ता ने सहर्ष स्वीकार किया परंतु इसके लिए बाजीराव को अपमानजनक शर्तों पर 31 दिसम्बर 1802 ई. को संधि करनी पड़ी।
देवगाँव की संधि
देवगाँव की संधि अथवा ‘देवगढ़ की संधि’ 17 दिसम्बर, 1803 ई. को रघुजी भोंसले और अंग्रेज़ों के बीच हुई थी। द्वितीय मराठा युद्ध के दौरान आरगाँव की लड़ाई (नवम्बर, 1803) में अंग्रेज़ों ने रघुजी भोंसले को पराजित किया था, उसी के फलस्वरूप उक्त संधि हुई। इस संधि के अनुसार बरार के भोंसला राजा ने अंग्रेज़ों को कटक का प्रान्त दे दिया, जिसमें बालासौर के अलावा वरदा नदी के पश्चिम का समस्त भाग शामिल था। भोंसला राजा को अपनी राजधानी नागपुर में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसने निज़ाम अथवा पेशवा के साथ होने वाले किसी भी झगड़े में अंग्रेज़ों को पंच बनाना स्वीकार कर लिया।
सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि
सन 1803 ई. में दौलतराव शिन्दे और अंग्रेज़ों के बीच सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि की गयी। इसके फलस्वरूप दोनों के बीच चलने वाला युद्ध समाप्त हो गया और शिंदे ने अपने दरबार में ब्रिटिश रेजीडेन्ट रखना स्वीकार किया और निज़ाम के ऊपर अपने सारे दावे त्याग दिए। शिंदे ने किसी भी विदेशी को अंग्रेज़ों की सहमति के बिना नौकरी पर न रखने का वचन दिया। इसके अलावा उसने गंगा और यमुना के बीच का सारा दोआब, जिसमें दिल्ली और आगरा भी सम्मिलित था, अंग्रेज़ों को सौंप दिया। इस प्रकार उत्तरी भारत, दक्षिण भारत तथा गुजरात में दौलतराव शिन्दे के समस्त राज्य पर अंग्रेज़ों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। अर्जुनगाँव की सन्धि के द्वारा शिन्दे की स्वतंत्रता समाप्त हो गई तथा उत्तरी भारत के अधिकांश भाग में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई।
अमृतसर की संधि
अंग्रेजों तथा विरोधी सिख राज्यों के दर की वजह से रणजीत सिंह ने 25 अप्रैल, 1809 ई. को तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो प्रथम के दूत चार्ल्स मेटकाफ से अमृतसर की संधि कर ली। इस संधि के द्वारा सतलज पार पंजाब की रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं और सतलज के पश्चिम में पंजाब राज्य का शासक रणजीत सिंह को मान लिया गया। उत्तर-पश्चिम में अपने राज्य का विस्तार करते हुए रणजीत सिंह ने 1818 में मुल्तान, 1819 ई. में कश्मीर तथा 1823 में पेशावर पर अधिकार कर लिया। इस संधि का मुख्य कारण नेपोलियन की रुसियों के साथ ‘तिलसित संधि’ (1807) हो जाने के बाद पश्चिमोत्तर क्षेत्र में फ्रांसीसियों के हमले की आशंका एवं महाराजा रणजीत सिंह के सतलुज राज्यों को अपने नियंत्रण में लाने के संयुक्त प्रयास थे। अफगान पर शाहशुजा का अधिपत्य स्थापित करवाने के बदले में शासक शाहशुजा ने रणजीत सिंह को वही प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया जिसे नादिरशाह लाल किले से लूटकर ले गया था।
पूना की संधि
नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में संगठित मराठा सेना ने पूना की अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी को लूटकर जला दिया और खड़की स्थित अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गया। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों में, जनवरी 1818 में ‘कोरेगाँव’ और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में भी पराजित हुआ। बाजीराव द्वितीय ने भागने की कोशिश की, लेकिन 3 जून, 1818 ई. को उसे अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण करना ही पड़ा और उनसे सन्धि करनी पड़ी। यह सन्धि इतिहास में पूना की सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है। इस लड़ाई में पेशवा की सेना हार गई थी और उनका योग्य सेनापति गोखले मारा गया। एल्फिस्टन ने बाजीराव द्वितीय से उसकी इच्छा न रहने पर भी संधि पर हस्ताक्षर करवाए। इससे पेशवा को मराठा संघ की प्रधानता छोड़ देनी पड़ी।
उदयपुर की संधि
उदयपुर के राणा और अंग्रेज़ सरकार के बीच सन 1818 ई. में उदयपुर की संधि हुई थी। इस संधि में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रतिनिधित्व सर चार्ल्स मेटकॉफ़ ने किया था। संधि के अनुसार उदयपुर के राणा को अंग्रेज़ों का आश्रित बनने के लिए मजबूर होना पड़ा।
गंडमक की संधि
ब्रिटिश भारत तथा अफ़गान अमीर याकुब ख़ान के बीच 26 मई 1879 को गंदमक की संधि हुई थी। यह संधि भारतीय ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड लिटन और अफ़ग़ानिस्तान के अपदस्थ अमीर शेरअली के पुत्र याक़ूब ख़ाँ के बीच हुई थी। जिसमें ब्रिटिश अफ़गान क्षेत्रों पर और आक्रमण नहीं करने पर सहमत हुआ था जिसके एवज़ में उनको सीमान्त अफ़ग़ान क्षेत्रों पर अधिकार मिल गया। इसके साथ ही याक़ुब ख़ान सभी आक्रांताओं और उनके साथियों को क्षमादान देने पर राज़ी हुआ था। ब्रिटिश याक़ूब को सालाना 60000 रुपये देने पर सहमत हुए थे। जब इसी संधि के तहत पियरे केवेग्नेरी काबुल जुलाई में पहुँचे तो दो महीने बाद एक विद्रोही अफ़ग़ान टुकड़ी ने हेरात से आकर उनके दल पर हमला बोला और केवेन्गेरी सहित कईयों को मार डाला। इसके बाद द्वितीय आंग्ल अफ़ग़ान युद्ध का दूसरा चरण आरंभ हुआ था।
सुगौली संधि
सन 1814-16 के मध्य ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच हुए युद्ध के बाद दोनों पक्षों के मध्य सुगौली संधि की गयी थी। युद्ध समाप्त होने के बाद 02 दिसम्बर 1815 को ब्रिटेन और नेपाल के मध्य इस संधि के लिए हस्ताक्षर किये गये। जिसपर 4 मार्च 1816 को मुहर लगायी गई। नेपाल की ओर से इस पर राज गुरु गजराज मिश्र और कंपनी ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किए थे।
लाहौर की संधि
अंग्रेज़ों और सिखों के मध्य 9 मार्च 1846 ई. को लाहौर की संधि हुई थी। इस सन्धि से लॉर्ड हार्डिंग ने लाहौर के आर्थिक साधनों को नष्ट कर दिया। लाहौर की सन्धि के अनुसार कम्पनी की सेना को दिसम्बर 1846 तक पंजाब से वापस हो जाना था, परन्तु हार्डिंग ने यह तर्क दिया कि महाराजा दलीप सिंह के वयस्क होने तक सेना का वहाँ रहना अनिवार्य है। उसने सामन्तों को प्रलोभन तथा शक्ति के द्वारा इस बात को मनवाने का प्रयास किया।